श्रृंगार
एक नजर लगी उसकी मुझको और मै दीवाना हो गया , वो ऐसी अदा थी हुस्न की मै बैठे-बैठे खो गया । क्या रंग है , क्या रूप है क्या गालों पर है लालिमा, रेशम से घने बादल जैसे क्या बालों पर है लालिमा । अनजान सा पच्छी मै उड़ता था दूर - दूर तक अंबर में , अब याद आ रही है उसकी तो घूर रहा हूँ समुन्दर में । हिरनी से नयन , नागिन सी कमर और गोर बदन कंवारे हैं , कमसीन नज़ाकत नूर भरे मनो रचनाकर स्वयं सँवारे है । कानों के उसके कर्णफूल सागर के मोती जैसे है , माथे की उसके बिंदिया तो चन्दा की ज्योति जैसे हैं । सूरज भी हमेशा शर्माता है उसके होठों की लाली से, काली रातें मुर्झाती हैं , उसके भौहों की काली से । उसके नाजुक स्तन के उभार हिमगिरी की नज़ाकत जैसी हैं होठों के बीच दाँतो की चमक, सावन में क़यामत जैसी हैं । आँखों में काजल की रेखा तलवार के धारों जैसी हैं आवाज़ कूकती कोयल सी, पाजेब सितारों जैसा हैं । मुस्कान गुलाबों जैसा है अंदाज़ बहारों जैसा है लाल - गुलाबी पलकें तो , गंगा के करार