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दहेज़ : एक सामाजिक कथा

अमीरों का ऐश गरीबों की मौत बनाती है , छीन के सुख बेचारों का दुःख सीने में भर देते है , बेचारे अपनी बेटियों को मजदूरी में बड़ा कर देते है, दहेज़ बिन करके विवाह मरने को खड़ा कर देते है, गरीबों की ना गरीबी समझे, वे मौज की हंसी उड़ाते है, दहेज़ के कारन बहुओं को , जिन्दा घर में जलाते है, माँ-बाप बेचारे बिलखाते, जब उनके दरवाजे आते है, उन लोगो के गाली सुनते, पुलिसों से पिटे जाते थे, दहेज़ लेना दुनिया का बन गया है एक शौक , हम सभी युवाओं को मिटाना है इसका खौफ,                                                                                                                   आशीष पाण्डेय"देव"

मेरी दीवानगी

मेरी कहानी प्यार की, जमीं और असमान की  वो दीपक के उजियार की, और दीपक के अंधियार की  वो चांदनी रात की चमकती एक किनारा थी, सुबह- सुबह सूरज के लालिमा की नजारा थी, आंखे पिलाये मंदिरा होंठो से रस बरसाती थी, होली के रंगों में वो मिली है सावन के झूलों पे वो झूली है,  देख लूँ उसे तो खिल जाये मेरा तन मन, आँखों के उसके मस्ती दिल में मचाये हलचल, अरमान मेरे दिल के आकाश पे चढ़ जाए, सुखी धरा पे जैसे एक मेघ बरस जाये, मै हूँ अलग कैसे ये दिल जनता  है ,   ये में जानता हूँ और खुदा जानता है , ये तनहाई ये आंसू ये कशमकश जानता है , ये प्रेम में जलता मेरा बदन जानता है, ये चौथे पहर का कहर जानता है , पानी में रहता बिन पानी मगर जानता है , कुम्हार की आग में पकता गागर जानता है , ये सागर की करुणा सागर जानता है , होंठ के बिरह को बासुरी जानती थी,  प्रेमी कृष्ण के बिरह को दीवानी मीरा जानती थी, शराब की बिरह को शराबी ही जानता है  कविता की विरह को कवी ही जानता है ,                                                                आशीष पाण्डेय"देव"

प्रेमी "एक परिभाषा"

एक प्रेमी हमेशा, खिलता कमल देखता है , नीचे का उसके, न दलदल देखता है, वो देखे हमेशा ही, मुस्कराहट उसकी , न देखे कभी भी, घबराहट उसकी , पागल दीवाना दिल से, लाचार होता है , गुलाब को पाने के लिए, परेशान होता है , नयनों में उसकी प्रतिमा लिए, दर-बदर  भटकता है , लेकिन गुलाब के काटों से, वो अनजान रहता है , याद करके उसको, दिन-रात भूल जाता है, आधी-तूफान, कंकड़-पत्थर में, वो मिल जाता है , यादों के सहारे, सपनों के पुल बनाता है , अपनी जिन्दगी की झील में, उसके ही गुल खिलाता है , दीवाना ऐसा होता है, बैठे-बैठे ही खो जाता है , बिना लिए कलम ही, गजलों को लिख जाता है , पाने के लिए प्रेम को, तूफान भी बन जाता है , खुद है वो नाजुक शीशा, फिर भी पत्थर को पिघलाता है , ज़मी में कहाँ  दम, आसमा भी थर्राता  है , जब प्रेम को पाने के लिए, प्रेमी गुर्राता है , मानव में कहाँ दम, मालिक भी सर झुकाता है , जब सच्चा प्रेम-प्रेमी-प्रेमिका को लुटाता है ,                                                                       आशीष पाण्डेय "देव"

उल्टा दौर .........

बदलते ज़माने के साथ , आदमी भी बदलने लगा  फैसन अब खुलके , आसमान पे चलने लगा  अब चिट्ठी की बात , मोबाईल में बदल गयी  वो नारी अबला से , बला में बदल गयी  नयनो में लगा के काजल , बालों को छितराती है  होठो पे लगा के लिपस्टिक, तब कालेज में आती है  पढाई के बहाने कालेज में , होता है दिलो का मेल  बाप की कमाई पे , बेटियाँ खेलती है ऐसा खेल  जानते हुए भी आदमी, कुछ नहीं बोल पाता है      क्योकि उसके सर पे , पत्नी का डर सताता है  कल तक तो रही थी पत्निया, अपने पतियों के वश में  आज वही पत्निय , डर भरती है,  अपने पतियों के नस में  चलता रहा जो ऐसा , तो आएगा जल्द वो काल  जब पत्नियाँ अपने पतियों का , कर देंगी जीना मोहाल                                                                             आशीष पाण्डेय "देव"