दास्ताँ आजादी के पहले की
पक्षी ना दाना खाती थी , कोयल भी गीत ना गाती थी , गोरे इतने थे तडपते हमें की , हम डर के मारे मर जाते थे रोटी तो दूर की बातें है, पानी के लिए तरसाते थे , थे ऐसे वे पापी इन्सान वो , भूखे हमसे खटवाते थे , ना खट पाओ तो ऊपर से , कोड़ो की वारसा करते थे, जो चोट लगे और चिल्लाओ , मुह में मिटटी भर देते थे, क्या-क्या बतलाऊ मै उनकी , सुनकर के धरा थर्राती है , आदमियों की तो बात ही नहीं , चींटी भी अश्रु बहाती है , उनका था ऐसा प्रकोप , की टिड्डे भी नहीं तब उड़ते थे, ऐसा ढाया था जुर्म उन्होंने , की मच्छर भी चुपके से रोते थे, वे होटल होम हेलीकाप्टर इत्यादि बनवाते थे , राज काज का मज़ा ले रहे सुख की नींद उड़ाते थे , हम झोपड़ पट्टी में रह कर जीवन का गुजारा करते थे , दुःख पीड़ा को याद करके हम भाग्य पर ही पछताते थे , वो ऐसा था कल हम लोंगो का , जब रोटी के लिए हम मरते थे , वे ब्रांडी बीयर पीते थे , हम पानी के बीना सो जाते थे , "आशीष पाण्डेय"